एक बार रात से ही जोरदार वर्षा हो रही थी । भीगते हुए ही भाई अमरदासजी अपने नियम के अनुसार व्यास नदी पर पहुँचे और गागर में जल भरकर वापस लौट पड़े । रास्ते में बहुत ज्यादा कीचड़ हो रहा था और फिसलन भी थी लेकिन भाई अमरदास का ध्यान उसकी ओर नहीं था । वे तो अपनी ही धुन में चले आ रहे थे । जिस समय वे गाँव में एक जुलाहे के घर के पास पहुँचे, उनका पैर फिसल गया और वे धड़ाम-से कीचड़ में गिरे । लेकिन उन्होंने गागर का एक बूँद पानी भी नहीं छलकने दिया । गागर को उन्होंने अपने हाथों में सँभाले रखा । वे धीरे-से उठने लगे तभी उन्हें जुलाहे के घर से आती आवाज सुनायी दी । जुलाहा अपनी पत्नी से पूछ रहा था : ‘‘जरा देखो तो बाहर कौन गिरा है ?’’
‘‘इतने मुँह अँधेरे और कौन होगा ? वही अमरू निथावा होगा वही दूसरे के टुकड़ों पर अपना जीवन काट रहा है ।’’ जुलाहे की पत्नी भिन्नाती हुई-सी बोली ।
भाई अमरदास ने जुलाहे की पत्नी की बात अनसुनी कर दी और वे उठकर गुरु के घर की ओर चल दिये । गुरु अंगददेव ने उनके लाये हुए जल से स्नान किया और वस्त्र धारण करते हुए भाई अमरदास से पूछने लगे
‘‘भाई अमरदास ! जब तुम जल भरकर व्यास नदी से लौट रहे थे, तब तुम्हारे साथ कोई हादसा हुआ था ?’’
‘‘नहीं गुरुजी ! कोई खास बात तो नहीं हुई ।’’ भाई अमरदास ने सहज भाव से उत्तर दिया : ‘‘रास्ते में कीचड़ बहुत था । मैं जुलाहे के घर के पास फिसलकर गिर पड़ा था, पर गागर का पानी मैंने जरा भी नहीं छलकने दिया ।’’
‘‘इसके अलावा और कोई बात ?’’
‘‘नहीं गुरुजी ! और तो कोई बात नहीं हुई, केवल जुलाहे की पत्नी अपने पति से कह रही थी कि बाहर गिरनेवाला अमरू होगा, जिसका इस संसार में कोई अपना नहीं है । वह बेसहारा है ।’’ भाई अमरदास ने गुरु अंगददेव की ओर देखा : ‘‘अब आप ही बताइये गुरुजी ! मैं बेसहारा कैसे हूँ ? आपका सहारा मुझे है । आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूँ फिर मैं बेसहारा क्यों हुआ ?’’
भाई अमरदास की तर्कपूर्ण और सहज उक्ति सुनकर गुरु अंगददेव मुस्कराये और बोले : ‘‘नहीं भाई अमरदास ! तुम बेसहारा नहीं हो तुम तो बेसहारा लोगों के भी सहारा हो ।’’
तू निथानियां दा थान
निमानियां दा मान
निगतियां दी गति
निपतियां दा पति
निधियों दा पीर
निआसरियां दा आसरा
तू सब दा स्वामी ।
अर्थात्
तू तो उनका भी स्थान है जिनका कोई स्थान नहीं है । तू उन सभी गिरे हुए दीन-हीन लोगों का मान है । जिनके जीवन में कहीं भी गति नहीं है और असहाय होकर जड़ बनकर रह गये हैं, तू उनकी गति है । तू उनकी इज्जत है जिन्हें लोगों ने बेइज्जत किया है । तू उन सभी निधियों अर्थात् उन सभी ऋद्धि-सिद्धियों तथा धन-वैभव का पीर है, रक्षक है, ज्ञाता है । तू उन सभी लोगों का सहारा है जो असहाय और बेसहारा हैं । फिर तू बेसहारा कैसे हो सकता है ?
गुरु अंगददेवजी के स्नेहभरे वचनों को सुनकर भाई अमरदासजी का हृदय गद्गद हो उठा । वे अपने गुरु के चरणों में गिर पड़े । गुरु अंगददेवजी का हृदय अपने इस सत्शिष्य के लिए उमड़ पड़ा ।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
कितना सुंदर कहा गया है👇
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गुरु की सेवा साधु जाने,
गुरु सेवा क्या मूढ पिछाने ।
गुरु सेवा सबहुन पर भारी,
समझ करो सोई नर-नारी ।।
🙏 ॐ श्री साई तन्याय नमः 🙏
🙏 ॐ श्री साई राम 🙏